Wednesday, 17 June 2009

बेचारी मक्खी !



अमरीकी राष्‍टृपति बराक ओबामो एक साक्षात्‍कार दे रहे थे और उसी समय एक मक्‍खी न जाने कहां से उनकी सुरक्षा को भेदती हुई उनके पास चक्‍कर लगाने लग गई।
ओबामा पहले तो संभले लेकिन बाद में उसके हर पल की हरकत को वह देखते रहे। मक्‍खी ने दुनिया के इस सर्व शक्तिमान पुरुष को कुछ ज्‍यादा ही परेशान कर दिया तो वह साक्षात्‍कार को छोड़ मक्‍खी पर ही कुछ देर के लिए खुद को फोकस किए रहे। उसके बाद देखिए हाथ का एक झटका लगा और मक्‍खी ओबामा के पांव में और उसके अगले ही पल मक्‍खी अपनी जान गवां चुकी थी। मक्‍खी बेचारी का क्‍या कसूर और ओबामा भी क्‍या करते लेकिन दुनिया भर के खबरिया चैनलों के लिए तो जैसे ब्रेकिंग न्‍यूज और कोई थी ही नहीं। शायद ओबामा ने भी ऐसा समाचार माध्‍यमों की तरफ इशारा कर पूछा था कि क्‍या अब यह भी खबर बनने वाली है। ऐसा ही हुआ। ओबामा का अनुमान सही था। चैनल और इंटरनेट माध्‍यम यह दिखाने में ज्‍यादा ही तत्‍पर दिखे और कुछ ही देर में पूरी दुनिया ने यह जान लिया कि एक शक्तिशाली पुरुष किस कदर मक्‍खी के कारण विचलित हो उठा और कैसे वह मारी गई।सवाल यह नहीं है कि मक्‍खी मर गई। हम तो कुछ ओर ही सोच रहे थे। हमारे मन में आया कि मक्‍खी एक नहीं हजारों मरती होगी लेकिन वह तो मरी ओबामा के हाथों से है, जो मरते मरते अपने मक्‍खी वंश का नाम खबरों में ले आई। इसलिए मरों तो भी ऐसे कि मरते मरते भी मिल जाए ख्‍याती और नहीं तो ऐसे बनों की मक्‍खी भी मारों तो दुनिया जाने।

Friday, 22 May 2009

लिट़टे उग्रवादियों ने सौ लोगों को भून डाला


18 मई को ताजा खबर आई कि लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम उर्फ लिट़टे के प्रमुख वेल्‍लुपिल्‍लई प्रभाकरन श्रीलंकाई सेना के हाथों मारा गया। यह खबर मेरे लिए ही नहीं पूरी दुनिया के लिए बड़ी खबर थी। भारत के लिहाज से तो इसलिए ज्‍यादा महत्‍व की थी कि वह राजीव गांधी का हत्‍यारा था, लेकिन मेरे लिए यह खबर अलग महत्‍व की थी। 18 बरस पहले की बात है। मेरी पत्रकारिता की शुरूआत नहीं हुई थी लेकिन यह शुरूआत मानी भी जा सकती है। उदयपुर से दैनिक अखबार निकलता है उदयपुर एक्‍सप्रेस, उसमें मैं चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के तौर पर सेवाएं दे रहा था, किसी अखबार में काम करने का मेरा अनुभव चतुर्थ श्रैणी कर्मचारी के स्‍तर से ही शुरू हुआ था। कृष्‍ण मोहनजी खाब्‍या अखबार के संपादक हुआ करते थे। दिन के अंदर के पेजों के लिए कृष्‍ण कुमार जी टिक्‍कू और रात में पेज वन का मेटर देने के लिए विष्‍णु जी शर्मा सेवाएं देते थे, रात दस बजे बाद विष्‍णुजी घर चले जाते और मेटर का अंतिम लिफाफा लेकर मुझे वहां से करीब डेढ किलोमीटर दूर प्रेस पर जाना होता था ताकि वहां मेटर कम्‍पोज हो और बाद में अखबार छपें। मेरा अंतिम लिफाफा पहुंचने का मतलब होता था कि मेटर पूरा हो गया है और प्रकाशन का अगला काम शुरू करना है। उस समय टेलीप्रिंटर से खबरें आती थी। खबरों के लिए टीपी फाड़ फाड कर मैं संपादकजी विष्‍णुजी को दिया करता था। उस दिन रात दस बजे बाद विष्‍णुजी घर के लिए निकल चुके थे। कार्यालय में पीछे से मैं ही रह गया था। जो कुछ मेटर प्रेस के लिए मुझे देना था वह लिफ़ाफे में बंद कर दिया। मैं कार्यालय की अगली सुबह के लिए हैण्‍डपम्‍प से मटकी भर पानी लेने गया और वापस आकर देखा तो टेली‍प्रिंटर पर फ़लेश आया था। फ़लेश आने का मतलब कोई महत्‍वपूर्ण खबर थी। इस खबर के लिए मैं कुछ देर रूक गया कि आखिर ऐसी कौनसी खबर आ रही है, खबर देखी तो चौंक गया। खबर थी, लिट़टे के उग्रवादियों ने सौ लोगों को गोलियों से छलनी कर मार डाला। खबर महत्‍वपूर्ण थी। अगर मैं इस खबर को प्रेस तक पहुंचाने का जतन ना करूं तो हमारा अखबार एक बड़ी खबर देने से वं‍चित रह सकता था, यह सोचकर मैने टीपी से खबर का पन्‍ना फाडा और उस पर शीर्षक लगाया कि लिट़टे उग्रवादियों ने सौ लोगों को भून डाला। उसे लिफाफे में बंद किया। कार्यालय पर ताला लगाया और मेटर लेकर प्रेस पर पहुंच गया। प्रेस प्रभारी ने जैसे ही लिफाफा खोला तो मेटर में एक खबर का शीर्षक संपादक जी की लिखावट का न पाकर चौंके और पूछा कि यह शीर्षक किसने लिखा है, मैने प्रभारी को यह बताया कि संपादकजी चले गए थे और खबर उनके जाने के बाद आई थी, इसलिए मैने ही शीर्षक दे दिया तो प्रभारी सभी के सामने जोर से बोल पडे, देखों चपरासी भी संपादक बन गए है, अगले दिन सुबह अन्‍य अखबारों की तरह हमारे अखबार में भी यह खबर लगी और वह भी पेज वन पर, संपादकजी कृष्‍ण मोहनजी खाब्‍या को यह पता लगा कि रात में खबर पर शीर्षक मैने देकर प्रेस तक खबर पहुंचाई तो उन्‍होंने मेरी पीठ थपथपाई और बोले अच्‍छा काम किया है, उस समय पूर्व रात वाले प्रेस प्रभारी के शब्‍द मेरे जेहन में उतर आए, उसके बाद एक जुनून के रूप में मैने पत्रकारिता से नाता जोड़ लिया। अठारह साल बाद प्रभाकरन की मौत की खबर आई तो मुझे वह पहला शीर्षक याद आ गया।

Sunday, 12 April 2009

ताकत जूते की


आज एक प्रेस वार्ता में गया था, राजस्‍थान के मुख्‍यमंत्री उस प्रेस वार्ता को संबोधित करने वाले थे, मुख्‍यमंत्री ने देर की तो वहां चर्चा चल रही थी जूतों की, ये चर्चा पत्रकारों के जूतों को लेकर थी, जो इन दिनों प्रेस कांफ्रेंस में कुछ ज्‍यादा ही धमाल मचा रहे हैं, प्रेस वार्ता में एक वरिष्‍ठ पत्रकार ने कहा ध्‍यान रखना भई आजकल पत्रकारों के जूते खतरनाक हो गए है, कुछ देर बाद सीआईडी के लोग आ गए, वे ऐसे जूतों पर नजर दौडा रहे थे जो पुराने और बिना लेस के हो, एक ने पूछा भई क्‍या खास है तो सीआईडी के लोग बोले सतर्क रहने में क्‍या बुराई है, वरना जूता उतारने में कितनी देर लगती है, बिना लेस का जूता होगा तो जल्‍दी खुलेगा और लेस वाले में देर रहेगी और फैंकने वाला कम से कम नया जूता तो पहनकर नहीं आएगा, इतने में प्रेस वार्ता को संबो‍धित करने मुख्‍यमंत्री आ गए, प्रेस वार्ता के बाद जैसे ही मुख्‍यमंत्री उठे एक गैर पत्रकार ने सवाल कर लिया साहब आजकल प्रेस कांफ्रेंस में जूते खूब चल रहे हैं तो मुख्‍यमंत्री ने यह कहते हुए चुटकी ली कि यहां तो एसा नहीं है,
जरनैल सिंह का जूता बहुत भारी पड़ा, यह नेताओं के चुनाव मार्ग में बाधा बन गया, इससे पूर्व अमरीकी राष्‍टपति जॉर्ज बुश पर एक इराकी पत्रकार ने जूता फैंक कर दुनिया भर में तहलका मचा दिया था, इसलिए जूते के कुछ ज्‍यादा ही मोल हो गए है,

Friday, 10 April 2009

चुनाव और आपका योगदान

लोक सभा के चुनाव होने जा रहे है, देश मे जनता नई सरकार तय कर रही है। हर बार हम चुनावों में अपना योगदान देते हैं और बाद में स्मरण भी नहीं करते। देश की सबसे बड़ी पंचायत का फैसला करने के लिए हमें अपनी सोच को भी मजबूत रखना होगा। ऐसे विचारवान लोगों की खेप संसद में पहुंचानी होगी जो देश को नई दिशा दे सके और पूरी दुनिया को यह अहसास करवा सके कि भारत का लोकतंत्र ही श्रैष्‍ठ है और उसके राजनेता देश की तरक्‍की का माद़दा रखते हैं। दोस्‍तों आओं हम मतदान के प्रति जागरूक हो जाए और सरकार के गठन के लिए अपना महत्‍वपूर्ण योगदान देने के लिए तैयार हो जाए।
तीन दिन बाद मै ब्लॉग लिखनी है यह सोचकर ऑफिस से जल्दी आया, रात को बेठा तो subjeact भी तय
नही कर पा रहा था नही लिख पाया,

Tuesday, 7 April 2009

आज सोचा कि mi
कुछ likhu