
18 मई को ताजा खबर आई कि लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम उर्फ लिट़टे के प्रमुख वेल्लुपिल्लई प्रभाकरन श्रीलंकाई सेना के हाथों मारा गया। यह खबर मेरे लिए ही नहीं पूरी दुनिया के लिए बड़ी खबर थी। भारत के लिहाज से तो इसलिए ज्यादा महत्व की थी कि वह राजीव गांधी का हत्यारा था, लेकिन मेरे लिए यह खबर अलग महत्व की थी। 18 बरस पहले की बात है। मेरी पत्रकारिता की शुरूआत नहीं हुई थी लेकिन यह शुरूआत मानी भी जा सकती है। उदयपुर से दैनिक अखबार निकलता है उदयपुर एक्सप्रेस, उसमें मैं चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के तौर पर सेवाएं दे रहा था, किसी अखबार में काम करने का मेरा अनुभव चतुर्थ श्रैणी कर्मचारी के स्तर से ही शुरू हुआ था। कृष्ण मोहनजी खाब्या अखबार के संपादक हुआ करते थे। दिन के अंदर के पेजों के लिए कृष्ण कुमार जी टिक्कू और रात में पेज वन का मेटर देने के लिए विष्णु जी शर्मा सेवाएं देते थे, रात दस बजे बाद विष्णुजी घर चले जाते और मेटर का अंतिम लिफाफा लेकर मुझे वहां से करीब डेढ किलोमीटर दूर प्रेस पर जाना होता था ताकि वहां मेटर कम्पोज हो और बाद में अखबार छपें। मेरा अंतिम लिफाफा पहुंचने का मतलब होता था कि मेटर पूरा हो गया है और प्रकाशन का अगला काम शुरू करना है। उस समय टेलीप्रिंटर से खबरें आती थी। खबरों के लिए टीपी फाड़ फाड कर मैं संपादकजी विष्णुजी को दिया करता था। उस दिन रात दस बजे बाद विष्णुजी घर के लिए निकल चुके थे। कार्यालय में पीछे से मैं ही रह गया था। जो कुछ मेटर प्रेस के लिए मुझे देना था वह लिफ़ाफे में बंद कर दिया। मैं कार्यालय की अगली सुबह के लिए हैण्डपम्प से मटकी भर पानी लेने गया और वापस आकर देखा तो टेलीप्रिंटर पर फ़लेश आया था। फ़लेश आने का मतलब कोई महत्वपूर्ण खबर थी। इस खबर के लिए मैं कुछ देर रूक गया कि आखिर ऐसी कौनसी खबर आ रही है, खबर देखी तो चौंक गया। खबर थी, लिट़टे के उग्रवादियों ने सौ लोगों को गोलियों से छलनी कर मार डाला। खबर महत्वपूर्ण थी। अगर मैं इस खबर को प्रेस तक पहुंचाने का जतन ना करूं तो हमारा अखबार एक बड़ी खबर देने से वंचित रह सकता था, यह सोचकर मैने टीपी से खबर का पन्ना फाडा और उस पर शीर्षक लगाया कि लिट़टे उग्रवादियों ने सौ लोगों को भून डाला। उसे लिफाफे में बंद किया। कार्यालय पर ताला लगाया और मेटर लेकर प्रेस पर पहुंच गया। प्रेस प्रभारी ने जैसे ही लिफाफा खोला तो मेटर में एक खबर का शीर्षक संपादक जी की लिखावट का न पाकर चौंके और पूछा कि यह शीर्षक किसने लिखा है, मैने प्रभारी को यह बताया कि संपादकजी चले गए थे और खबर उनके जाने के बाद आई थी, इसलिए मैने ही शीर्षक दे दिया तो प्रभारी सभी के सामने जोर से बोल पडे, देखों चपरासी भी संपादक बन गए है, अगले दिन सुबह अन्य अखबारों की तरह हमारे अखबार में भी यह खबर लगी और वह भी पेज वन पर, संपादकजी कृष्ण मोहनजी खाब्या को यह पता लगा कि रात में खबर पर शीर्षक मैने देकर प्रेस तक खबर पहुंचाई तो उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई और बोले अच्छा काम किया है, उस समय पूर्व रात वाले प्रेस प्रभारी के शब्द मेरे जेहन में उतर आए, उसके बाद एक जुनून के रूप में मैने पत्रकारिता से नाता जोड़ लिया। अठारह साल बाद प्रभाकरन की मौत की खबर आई तो मुझे वह पहला शीर्षक याद आ गया।

प्रिय भूपेन्द्रजी,
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा.. आप भी ब्लाग पर हैं। लेट ही सही पर आपके बारे में नई जानकारी मुझे मिली। इसे पढ़कर मुझे आप पर गर्व है। सोना सदैव कोयले की खानों से मिलता है। आप भी खरे सोने की तरह हैं। इसी तरह लगे रहें, डटे रहें, जुटे रहें... आगे बहुत कुछ आपका इंतजार कर रहा है। आपका भविष्य निःसंदेह उज्ज्वल है।
शुभकामनाओं के साथ,
राकेश गांधी..
आप के लेखों का सभी को इंतजार है। कृप्या िनरंतरता बनाएं रखे। िजससे रोज हम आपके िवचारों से अवगत हो सके।
ReplyDeletebhupsa,
ReplyDeletekhabar ko apani smratiyo se jod diya bahut accha laga.